मुंबई ,कहा जाता है कि एक यात्रा आपको दस किताबों जितना सिखा देती है। इस बात पर कई फिल्में बनी हैं जिनमें यात्रा करते हुए किरदार की वर्षों से उलझी हुई पहेलियां सुलझ जाती हैं। वे अपने आपको भी खोज लेते हैं। आकर्ष खुराना द्वारा निर्देशित फिल्म ‘कारवां’ भी इसी तरह की बात करती है।
फोटोग्राफर बनने का सपना देखने वाला अविनाश (दुलकर सलमान) सॉफ्टेवयर इंजीनियर है और अपने काम से नाखुश है। इस बात को लेकर वह अपने पिता से नाराज है और कई वर्षों से उनमें बातचीत बंद है। अविनाश के पिता का तीर्थयात्रा के दौरान निधन हो जाता है। अपने पिता की बॉडी लेने जब वह जाता है तो उसे पता चलता है कि कूरियर कंपनी ने किसी और की बॉडी उसे पहुंचा दी है। शव की अदला-बदली करने के लिए अविनाश को बंगलुरु से कोच्चि की यात्रा करना पड़ती है।
इस यात्रा में अविनाश के साथ शामिल होता है शौकत (इरफान खान) और फिर इनसे मिल जाती है तान्या (मिथिला पालकर)। तीन लोगों का कारवां(!) मंजिल की ओर चल पड़ता है। मंजिल तक पहुंचने के सफर में कई घटनाएं होती हैं और सभी को कुछ न कुछ हासिल होता है।
बिजॉय नाम्बियार द्वारा लिखी गई कहानी में दो शवों की अदला-बदली वाला ट्रेक कुछ हटकर जरूर है, लेकिन पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं है। इतनी देर तक शव को अपने पास रखना, बीच में पार्टी करना, शव ले जाने वाली वैन का चोरी हो जाना जैसी बातों के जरिये फिल्म को किसी तरह आगे बढ़ाया गया है।
फिल्म में कहानी से ज्यादा किरदार महत्वपूर्ण है। अविनाश गुमसुम है, अंतर्मुखी है, कम उम्र में ही ‘अंकल’ वाला व्यवहार करता है। इस यात्रा में वह उम्र में अपने से बहुत छोटी तान्या का साथ पाकर खिल जाता है। उसे महसूस होता है कि जिंदगी को वह कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले रहा है। हालांकि पिता से उसके तनाव वाली बात को एक पत्र के जरिये सुलझाया गया है और यह लेखकों के लिए सबसे आसान तरीका था। कुछ और सोचा जाना था।
तान्या इस यात्रा में बगावत और बेवकूफी के अंतर को समझती है। वह बगावत को ही आजादी मान बेवकूफी कर रही थी। नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाला शौकत खुद ही दूसरे की बेगम भगा ले जाता है। इनमें से सिर्फ अविनाश के किरदार का बदलाव ही प्रभावित कर पाता है।
इन किरदारों की जो समस्या दिखाई गई है उनमें नई बात नजर नहीं आती। पैरेंट्स का बच्चों के करियर को लेकर दखल देना जैसी बातें कई बार दोहराई जा चुकी हैं इसलिए बहुत जल्दी कहानी अपनी ताजगी खो देती है।शव की अदला-बदली को लेकर उत्सुकता पैदा होती है कि कुछ अलग देखने को मिलेगा, लेकिन धीरे-धीरे यह ट्रैक बैक सीट पर चला जाता है और दूसरी बातें हावी हो जाती हैं।जहां तक प्लस पाइंट का सवाल है तो फिल्म के कुछ संवाद और सीन चुटीले हैं, हंसाते हैं। कमियों के बावजूद फिल्म में मन लगा रहता है। शौकत, तान्या और अविनाश के किरदार पसंद आने लगते हैं।आकर्ष खुराना फिल्म के निर्देशक हैं। जहां वे फिल्म को हल्का-फुल्का रखते हैं वहां फिल्म पकड़ बनाती है, लेकिन जहां पर फिल्म गंभीर होती है पकड़ छूट जाती है। कहीं-कहीं फिल्म को ‘कूल’ दिखाने की उनकी कोशिश साफ दिखाई देती है। लोकेशन उन्होंने उम्दा चुनी है जिससे फिल्म में ताजगी महसूस होती है।
इरफान खान पूरी तरह रंग में नजर नहीं आए, हालांकि स्क्रिप्ट से उठ कर उन्होंने कुछ दृश्यों को अपने अभिनय के बूते पर जगमगाया है। दुलकीर सलमान का अभिनय जबरदस्त है और उन्होंने अपने कैरेक्टर को बारीकी से पकड़ा है। मिथिला पालकर फिल्म की कमजोर कड़ी साबित हुई। स्पेशल अपियरेंस में कृति खरबंदा का काम अच्छा है।
कारवां तभी पसंद आ सकती है जब बहुत उम्मीद नहीं लगाई जाए।
साभारः वेब दुनिया